"म्लेंच्छ संहारक :লা-চিত"
- कहानी रक्तरंजित शौर्य की
चूँकि पहली लड़ाई गोहोटी (आज के गुवाहाटी) में होनी थी, दुश्मन को हराने के लिए एक उपयुक्त सेनापति का चयन करना आवश्यक था। सेना के प्रति निष्ठा, दृढ़ता, साहस, वीरता एवं नेतृत्व जैसे आवश्यक गुणों पर चर्चा करने के बाद आखिरकार लचित के नाम पर मुहर लगा दी गई। दूसरे दिन जब दरबार में लचित को बुलाया गया, तब उन्होंने राजा के सामने घुटने टेक प्रणाम किया; तभी एक सिपाही ने उनका मुकुट चुरा लिया। आगबबूले हुए लाचित ने उसका पीछा किया और उसे पकड़ लिया, वह उसका सिर काटने ही वाले थे, तब राजा के क्या हुआ पूछे जाने पर, "इसने मेरा मुकुट चुराकर मुझे अपमानित किया है, और कोई भी जातिवादी योद्धा ऐसा अपमान नहीं सहेगा।" तब राजा ने बताया कि वह लचित की परीक्षा ले रहे थे। वह व्यक्ति जो राजसम्मन को प्राणों से भी श्रेष्ठ मानता है, वह सर्वोत्तम संभव तरीके से सेना का नेतृत्व कर सकता है। लचित परीक्षा में पूरी तरह से सफल हो चुके थे और राजा ने लचित को देश का अपमान धोने हेतु गोहाटी भेज दिया।
दूत का संदेश सुनकर औरंगजेब ने अहोम राजा को सबक सिखाने का फैसला किया। इसी बीच छत्रपति शिवाजी महाराज बड़ी शिताफी से आगरा से छूट कर गए थे, जिस में मिर्जा राजा जय सिंह और उनके पुत्र राम सिंह का हाथ होने का संदेह था। अफवाहें फैल रही थीं कि असमिया जादू टोना आदि करते हैं, क्योंकि असम में खराब मौसम से कोई भी आक्रमणकारियों कभी वापिस नही आ पाए थे। चूँकि औरंगजेब बहुत चालाक था, उसने राम सिंह को असम पर आक्रमण करने के लिए नियुक्त किया। उसकी मंशा थी कि अगर राम सिंह मारा गया तो काफिर पर बराबर शासन होगा और अगर वह जीत गया तो असमियों को सबक सिखाया जाएगा। हालांकि रामसिंह इस मंशा को जानते थे; वह एक शर्त पर आक्रामक होने के लिए तैयार हो गया। दरबार मे असमिया लोग जादू-टोना करते है ऐसा झुठ बताकर, अपने साथ दैवी शक्ति से युक्त एक साधु को भेजने की शर्त रखी। राम सिंह ने सिखों के नौवें गुरु श्री तेग बहादुर जी को अपने साथ ले जाने का फैसला किया क्योंकि औरंगजेब उनसे नाखुश था। दिल्ली से असम की और जाते हुए, राम सिंह सबसे पहले ढाका के नवाब के पास तैंतालीस हजार पैदल सेना, विशाल तोपों और घुड़सवार सेना के साथ गए। नवाब को मदद करने की गुहार की एवं उसकी मदद से, लगभग तीन लाख सैनिकों, सेना के अधिकारियों, तोपखाने, ढाका और दिल्ली के घुड़सवारों का एक विशाल मानव महासागर, राम सिंह नामक एक हिंदू के नेतृत्व में, गोहोटी की ओर दूसरे हिंदू राजा से लड़ने जा रहे थे। विदेशियों के कहने पर अपनी ही देश वासी एक हिन्दू से लड़ने आ रहे रामसिंह। लचित के पास मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ने के सिवा कोई चारा नहीं था, यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है..!!!
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) में स्थित लचीत की प्रतिमा
Image source: wikimedia commons
लचित के नेतृत्व में, जो बडफुकन (सेनापति) बन गया, अहोम सेना ने ब्रह्मपुत्र नदी को पार किया और सरायघाट से आगे बढ़कर छोटे और बड़े किलों और क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इटाकुली के किले में मुगल प्रमुख फिरोज खान का शिविर था, जिन्होंने अहोम सेना के आने की खबर सुनकर जोरदार तैयारी की। जैसे ही लचित की सेना युद्ध स्थान की करीब पहुंच रही थी, फिरोजखान ने अचानक एक भारी तोपें चला दी। अब तो इटकुली जितना सपने जैसा लग रहा था, किन्तु लाचित को एक तरकीब सूझी, वह थी खुफिया विभाग को दो समूहों में विभाजित करना और दो समूहों को अलग-अलग दिशाओं में भेजना ऐसी थी। हुआ यूं कि आधी रात को जब गोलियों की आवाज सुनी गई तो मुगल कांप उठे और भाग गए। तब लचित के गुप्तचर मुग़लोंकी तोपों में पानी भर भाग गए। सुबह लचित ने किले पर हमला किया, लेकिन कोई तोप नहीं चलने से मुगल परेशान हो गए और भाग गए। इस जीत से राजा बहुत खुश हुआ। वहाँ, राम सिंह की सेना ने पश्चिमी असम के धुबडी में डेरे डाले। गोहोटी से पंद्रह मील दूर, रामसिंह ने हाजी में पूजा की और युद्ध की योजना बनाई। लेकिन प्रकृति के आगे किसकी चलती है?!बारिश का मौसम शुरू हो गया और मलेरिया सहित अन्य महामारियां फैलने लगीं। एक के बाद एक मुगल इसके शिकार होते जा रहे थे। लचित, हालाँकि, गोहोटी की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए आगे की योजनाएँ बना रहे थे...
किसी भी सेना का ख़ुफ़िया विभाग बहुत अहम भूमिका निभाता है। जिसका ख़ुफ़िया दल मजबूत है उसे हराना किसी के लिए भी आसान नहीं है। लचित की सेना का ख़ुफ़िया दल भी बहुत प्रबल था। लचित ने अपने कुछ वफादारों को दुश्मन के खेमे में खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए भेजा; फकीरों के वेश में गए इन साथियों ने मुगलों के बीच अहोम सेना के बारे में कई तरह की अफवाहें भी फैलाईं। लचित ने पचास लोगों को इकट्ठा कर आग के चारों ओर नाचने का नाटक रचवाया और मुगलों को दिखाया जो सच्चाई को देखने आए थे। रात के अँधेरे में लकड़िया जलाने और नदी में केले के खंभे में आग लगाने जैसी विभिन्न चालों की मदद से, अहोम सेना द्वारा मुगलों को अहोम सेना बहुत बड़ी स्वरूप में है एवं रोज तैयारी कर रही है ऐसा दिखाकर घबराया गया। मुगल सेना भय से अभिभूत थी ! एक दिन किले कि प्राचीर का हिस्सा ढह गया है ऐसा देखने के पश्चात, लचित ने रात भर मरम्मत के लिए अपने मामा के नेतृत्व में कुछ आदमियों को भेजा। सुबह कितना काम हुआ, यह देखने आए लचित ने काम को आधा-अधूरा छोड़ सब सो रहे हैं ऐसा देखा तो क्रोधित हो गए और मामासे जवाब पूछा। लेकिन कुछ भी जवाब देने से पहले उसने अपने मामा का सिर एक ही पल में अलग कर दिया। और उन्होंने कहा कि (দেশতকৈ মামাই ডাঙৰ ন হয়) देश से मामा बाद नही होता है। इस प्रसंग से लचित की देश के प्रति भावना स्पष्ट होती है। दिन और महीने बीतते गए, लेकिन राम सिंह की सेना आगे नहीं बढ़ सकी। अंत में, उसने कूटनीति का उपयोग करके लचित और उसकी सेना अधिकारियों को रिश्वत देकर उन्हें वश में करने का एक चालाक प्रयास किया, लेकिन असफल रहा। यहा अहोम राजा भी चिंतित था क्योंकि लचित लंबे समय से कुछ ठोस नहीं कर पाया था; लेकिन मुख्यमंत्री अतन बडगोहाई का मत था कि राजा को विवेक से काम लेना चाहिए क्योंकि उसे लचित पर पूरा भरोसा था। उसी समय, जब राजा को राम सिंह का झूठा पत्र मिला, तो क्रोधित राजा ने लचित से जवाब मांगने का फैसला किया। लेकिन मुख्यमंत्री की सलाह पर, 'हे बडफुकान, दुश्मन सेना को नष्ट करने के लिए आपको जो काम से भेजा है, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। क्या आप मुगलों से डरते हैं? मैं आपको आज्ञा देता हूं कि आप उन्हें तुरंत नष्ट कर दें, अन्यथा, घूंघट पहनकर
आत्महत्या कर लो'।
Image source: wikimedia commons
राजा का यह पत्र पढ़कर लचित का मन बहुत व्याकुल हो उठा, लचित को इस बात का पूर्ण ज्ञान था कि राजा की आज्ञा का पालन करना ही उसका प्रथम कर्तव्य है। लचित जो एक निस्सीम देशभक्त था जो देश के सामने अपने मामा को भी नहीं मानते थे; जिन्होंने मातृभूमि के लिए बहुत कुर्बानीयाँ दी थी, वह आज दुखी थे। अगले दिन, बीस हजार सैनिकों को दो गटों में बांटकर, पांच हजार की एक टुकड़ी को आगे भेजा। इतनी कम सेना देख मुग़ल सेना खुशी के मारे झूम उठी। जैसे ही युद्धकी शुरुआत हुई, तो मुगलों ने अपने चारों ओर एक विशाल सेना को पाया, एक भयंकर युद्ध हुआ। लचित की जीत के आसार दिखाई दे रहे थे। मुघलो की हार के आसार दिखते ही रामसिंह ने अपने घुड़सवारोंको मैदान ए जंग में उतारा। मुगल घुड़सवार सेना और अहोम पैदल सेना जो युद्ध नीति के अनुसार नही था। लेकिन नैतिक युद्ध करे वो मुग़ल ही क्या? राम सिंह को अपने अम्बर के घुड़सवारों पर बहुत विश्वास था। उन्हें एक प्रबल आशा थी कि इंद्र भी उनसे नहीं लड़ पाएंगे, तो उसके सामने असमियों की क्या मजाल? उस युद्ध में लचित के दस हजार योद्धा मारे गए। हर तरफ उदासी छायी। "मुझे राजा की आज्ञा मानने के लिए अपने दस हजार वीरों की बलि देनी पड़ी। कितनी भयानक हार है! वह नायक मेरे राष्ट्र की रीढ़ थे" ऐसा बयान लचित ने दिया। लेकिन पुनः सभी ने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की। अलाबोई की लड़ाई में राम सिंह की जीत के बावजूद, गुवाहाटी अभी भी बहुत दूर थी। युद्ध के चार साल बाद, राजा चक्रध्वज सिंह का भी अचानक निधन हो गया और उदयादित्य सिंह सिंहासन पर बैठ गए। लचित बहुत दुखी था कि वह राजा से किया वादा पूरा नहीं कर सका। लगातार शारीरिक एवं मानसिक श्रमों के कारण लचित बीमार पड़ गए। उन्हें बुखार चढ़ गया, बुखार इतना तेज हुआ कि चावल के दाने को रखे जानेपर वह तुरंत फूटने की स्थिति में पहुंच जाता था। इतिहास में इसे 'अखोई फूटा ज्वर' के रूप में दर्ज किया गया है। लेकिन, 'जाको राखे साईंया मार सके न कोई'... जीत के लिए मुग़लों को सरायघाट लाना आवश्यक था। लचित के बीमार होने की खबर सुनकर राम सिंह पानी के रास्ते आगे बढ़ा। यह जानने के बाद, लचित ने आपने चिलचिलाते बुखार में भी उसे युद्ध के मैदान में ले जाने के लिए कहा। आगे की तरफ से कई मुगल युद्धपोतों को आते देख लचित ने नौसेना को तैयार रहने का आदेश दिया। उस समय मुहूर्त देखकर ही हमले किए जाने की परंपरा थी। जिस क्षण भगवान श्री रामचंद्र ने रावण पर हमला किया वही अब मुगलों का काल साबित होने वाला था। वह दिन था विजयादशमी १६७४...
बुडफुकन ने सैनिकों को युद्ध शुरू करने का आदेश दिया। लेकिन मुगलों का जवाबी हमला इतना भीषण था कि अहोम सेना कमजोर हो गई। राम सिंह की नौसेना द्वारा नरसंहार से बचने के लिए लचित की सेना ने अपने युद्धपोतों को विपरीत दिशा में मोड़ना शुरू कर दिया। लचित के युद्धपोत के नाविक भी विपरीत दिशाओं में जाने लगे। लचित ने यह देखा तो लचित, जो पहले से ही बीमार था, बहुत क्रोधित हुआ। उसने स्वयं अपने नौका के सैनिकों को ब्रह्मपुत्र नदी में धकेल दिया। अब लचित ही उस युद्धपोत में बीमार हालत में अकेला खड़ा था। एक मानवरहित युद्धपोत को मुगल नौसेना की ओर जाते देखा गया। ऐसे में लचित सैनिकों पर चिल्ला रहा था, "चले जाओ कायरों, भाग जाओ और अपने परिवार के साथ खुशी से रहना, लेकिन स्वर्गदेव राजा को बता दें, (লাচিত জীয়াই থকা মানে গোহাটী এৰা নাই)(लचित जियाई थका माने गोहोटी इरा नाई) यानी लचित ने अपनी जान गंवा दी लेकिन दुश्मन को गोहोटी में प्रवेश नहीं करने दिया। लचित की बातों से लज्जित होकर सैनिक पीछे मुड़े। सभी युद्धपोतों के नाविक और सैनिक जो विपरीत दिशा में चल रहे थे, अपने नेता की दिशा में आगे बढ़ने लगे। उन्होंने इतना भयंकर हमला किया कि मुगल सेना उनका सामना न कर सकी। दुश्मन ने भागने की कोशिश की लेकिन सभी नौकाएं एक-दूसरे के इतने करीब आ गईं कि ऐसा लगा जैसे विशाल ब्रह्मपुत्र नदी पर नौकाओं का पुल बनाया गया हो! उस पुल से कोई भी नदी पार कर सकता था। अपने-अपने जगह को छोड़कर, मुगल सैनिक भागने लगे और असमिया उनका पीछा करने लगे। आगे रामसिंह की नेतृत्व में मुग़ल और उनके पीछे लाचित की नेतृत्व में अहोम सेना की एक रोमांचक तस्वीर थी। उस समय अहोम साम्राज्य की सीमा पर मानस नदी के तट तक पीछा चल रहा था; वह विदेशियों को मातृभूमि से दूर भगाकर ही रुका !! इस तरह अहोम साम्राज्य ने अपनी अजेयता बनाए रखी और मुगल शर्म से भाग गए।
Image source: wikimedia commons
पराजित राम सिंह मायूस होकर दिल्ली लौट गया। उसका जीत का सपना चकनाचूर हो गया। उन्होंने सोचा कि यह भूमि, जिसमें वास्तविक ईश्वर की कृपा है, को जीतने का विचार मात्र मूर्खता थी। यहाँ का प्रत्येक सैनिक तलवार चलाने में अत्यधिक कुशल, कुशल धनुर्धर, उत्कृष्ट तैराक, कुशल नाविक एवं असाधारण परिश्रमी है। उसी तरह वे एक जोशीले देशभक्त, एक महान बलिदानी, बहुत वीर और देश के प्रति समर्पित हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस भूमि पर आक्रमण करने और कुटिल नज़र रखने वालों के इरादे हमेशा विफल रहे और आगे भी होते रहेंगे !! शत्रु के पूर्ण सफाये के बाद भी विजय की खुशी अधिक देर तक नहीं टिकी। सरायघाट में भीषण युद्ध के एक साल पश्चात वीर सेनापति लचित का दुखद निधन हो गया। उनके निधन से न केवल अहोम बल्कि पूरे भारत की अपूरणीय क्षति हुई है।
मध्यकालीन भारत में तीन महापुरुषों द्वारा मुगलों के विरुद्ध लड़ाई का इतिहास वर्णन करता है। १६ वीं सदी में 'महाराणा प्रताप', १७ वीं सदी में 'छत्रपति शिवाजी महाराज' के साथ-साथ 'लचित' का नाम भी गर्व से लिया जाता हैं। लचित के अविस्मरणीय बलिदान के सम्मान में, २४ नवंबर को हर साल असम में 'लचित दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य आज की युवा पीढ़ी में लचित के काम के बारे में जागरूकता पैदा करना है।
१६७२ में लचित की समाधि स्थल पर स्वर्गदेव (महाराज) उदयादित्य सिंह द्वारा निर्मित 'लचित मैदाम' असम के जोरहाट जिले में है और लचित के स्मारक के रूप में प्रसिद्ध है।
लचित मैदाम - जोरहाट, असम
Image source: wikimedia commons
१९९९ से, सर्वश्रेष्ठ कैडेटों को राष्ट्रीय रक्षा अकादमी या एनडीए द्वारा लचित बोरफुकन पुरस्कार एवं स्वर्ण पदक से सम्मानित किया जाता है। लचित की वीरता के बारे में दुनिया को बताने का राष्ट्रीय स्तर पर यह पहला प्रयास था।
असमिया छात्र संघ, ताई-अहोम युवा परिषद, ५०,००० रुपये, प्रशंसापत्र और एक पारंपरिक तलवार के रूप में एक वार्षिक 'महावीर लचित पुरस्कार' वितरित करता है।
२०१६ में, गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र नदी में असम सरकार द्वारा लचित की ३५ फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया गया था। इनमें लचित की एक कांस्य प्रतिमा, १८ फीट की ८ सैनिकों की प्रतिमाएं और ३२ फीट लंबाई की २ तोपें शामिल हैं।
ब्रह्मपुत्र नदी में बना लचित का पुतला
Image source: wikimedia commons
इस लेख का उद्देश्य वीर लचित बोरफुकन के कार्यों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना और पूरे देश और समाज को उनके अतुलनीय बलिदान की याद दिलाना है। Team The Lost Heroes द्वारा महावीर लचित को श्रद्धांजलि देने का एक छोटा सा प्रयास।
।।महावीर लचित अमर रहे।।
||भारत माता की जय ||
संग्रह एवं लेखन टीम द लॉस्ट हीरोज द्वारा...
संदर्भ - उपरोक्त लेख में सभी सूचनाओं के संदर्भ हैं,
भारत सरकार - केंद्रीय पुरातत्व विभाग; विषय: - लचित बड़फुकन, लचित बड़फुकन - मधुकर लिमये, ब्रह्मपुत्र - अनीश गोखले, अहोम साम्राज्य - असम का इतिहास; दृष्टि आईएएस, विभिन्न यू ट्यूब वीडियो आदि। उपरोक्त जानकारी की प्रामाणिकता सत्यापित की गई है एवं जानकारी विश्वसनीय है।
किसी भी समस्या या शिकायत को दर्ज करने हेतु thelostheros21@gmail.com पर संपर्क करें।
आपकी प्रतिक्रियाओं का भी स्वागत है।
हमारे पास इस जानकारी का कोई कॉपीराइट नहीं है और हमारा एकमात्र उद्देश्य इन महान व्यक्तियों की जानकारी को पूरे समाज में फैलाना है। हालांकि, यह विनम्र अनुरोध है कि केवल The Lost Heroes के नाम से ही जानकारी को आगे बढ़ाया जाए।
टिप्पण्या
टिप्पणी पोस्ट करा