लचीत बरफुकान (हिंदी)
इ.स. १७ वी सदी,भारतवर्ष के पुर्वोत्तर भाग में एक लडा़ई लडी़ जा रही थी; दोंनो प्रतिस्पर्धी आमने सामने अपनी मजबुत नौसेना सहीत खडे थे | एक समुह अपना अस्तित्व टिकाने हेतू तो दुसरा अहंकार... पर अतंतः सत्य ने अहंकार पर जीत हासिल करते हुंऐ अपना अस्तित्व टिकाया! पढीए इस लेख में...
Image source: wikimedia commonsपुर्वोत्तर भारत नैसर्गिक संसाधनो से युक्त एक बहुत सुंदर प्रदेश। पुर्वीय हिमालय कि गर्ता में बसे हुऐ इस प्रदेश की (7sister) इस नाम से पहचान है। इस प्रदेश ने भारतवर्ष का हर मुश्किल घडी में खुब तरीके से साथ निभाया है ; लेकिन इस प्रदेश को हम हर बार क्यों ठुकराते है ? सिर्फ उनका चेहरा हम सें अलग है इस लिऐ ? क्यों हम उनसे उन्हीं के देश में विदेशीओं तरह व्यवहार करते है? सब भारतवासी भाई-बहन है,वो सिर्फ कहने के लिऐ ?
प्रस्तुत लेख में पुर्वोतर भारत में १७ वी सदी में हुए हुए एक महान योद्धा की जानकारी दे रहे है , जिन्होंने अपनी मातृभुमी के रक्षण हेतु बलिदान दिया परंतु ऐसे योद्धा की जानकारी हम तक बहुत कम मात्रा में पहुंची.
ऐसा किया गया। रखा हुआ नाम ही आगे जीवन में उसकी पहचान का कारण बनने वाला था इस बात का उस धर्मपिता को क्या ज्ञान? वही भविष्य में रक्तरंजीत अजेय योद्धा लाचित बरफुकान संपुर्ण अहोम साम्राज्य का सरसेनपति स्वकीयोंकी भेश में आनेवाले म्लेंछोंका (विदेशी) संघार कर अपनी मातृभूमि के रक्षण हेतु जीवन न्योछावर करने वाला था।
अहोम साम्राज्य वर्तमान असम और उसके परिवेश में फैला एक शक्तिशाली साम्राज्य था। एक समुदाय जो मूल बर्मा के माध्यम से दक्षिण पूर्व एशिया/थाईलैंड से पूर्वोत्तर भारत में चला आया और 13 वीं शताब्दी में राजनीति की उइया (मकान मालिक) प्रणाली को समाप्त करके चोलुंग सुकपा के नेतृत्व में अपना नया राज्य स्थापित किया। अहोम साम्राज्य की व्यवस्था मूल रूप से मजदूरों पर निर्भर थी। उन्हें 'पाइक' कहा जाता था। अहोम साम्राज्य की सफल घुड़दौड़ लगभग ६०० वर्षों तक चलती रही, १८२६ में चंडवु में अंग्रेजों के साथ संधि से अहोम राज्य ब्रिटिश असम में रूपांतरित हो गया। हालांकि जन्म से भारतीय न होते हुए भी अहोमों ने भारतीय संस्कृति और धर्म को अपनाया और एक उदार तरीके से शासन किया। कभी साम्राज्य की राजभाषा रही अहोम आज लुप्त हो चुकी है। अहोम संस्कृति में, भारतीय हिंदू संस्कृति में ताई,थाई,तिब्बती और बर्मी का मिश्रण पाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मिश्रित हिंदू संस्कृति थी। प्राकृतिक सामग्री (लकड़ी, बांस, घास) का उपयोग करके बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए ज्यादा ऊंचाई पर मकान बनाए जाते थे। अनाज के साथ मांसाहारी खाद्य पदार्थोंका अधिक मात्रा हो उपयोग किया जाता था। पूर्वोत्तर भारत का विचार करते हुए आज भी स्थितिजन्य आहार (मांसाहार) अधिक मात्रा में पाया जाता है।
अहोम लोग साहित्य और कला में विशेष रुचि रखते थे। अहोम भाषा की एक अलग लिपि ताई कड़ाई मौजूद थी जो आज की थाई लिपि के समान है। इतिहास, साहित्य, समाज, कर्मकांड आदि विषयोंमें अहोम कालीन लेखन उपलब्ध है। अहोम राजाओं ने कवियों एवं विद्वानों को भूमि अनुदान में देकर सम्मानित किया और रंगमंच को प्रोत्साहित किया। उन्होंने संस्कृत के महत्वपूर्ण कार्यों का अहोम भाषा में अनुवाद करवाया। ऐतिहासिक नाटक 'बुरुंजी' का पहले अहोम और फिर असमिया में अनुवाद पाया जाता है। अहोम शासन व्यवस्था में स्वर्गदेव (राजा) सेना का नेतृत्व करते थे। पाइक राज्य की प्रमुख सेनाएँ थीं। पाइक को सेवारत एवं ग़ैरसेवारत के रूप में वर्गीकृत किया जाता था। युद्ध के दौरान सैन्य आयोजकों द्वारा 'ताई मिलिशिया' के रूप में गै़र-सेवारत पाइकों का गठन किया गया था। सेना के पांच मुख्य विभाग पैदल सेना, घुड़सवार सेना, तोपखाने, नौसेना एवं खुफिया होते थे। शुरुआती दिनों में तलवार, भाले, धनुष-बाण तथा पश्चात के काल में बंदूकों का इस्तेमाल किया जाता था। अहोम सैनिक 'गुरिल्ला' प्रकार के युद्ध (Guerilla Warfare) में निपुण थे। सैन्य रणनीति दुश्मन सैनिकों को अपने क्षेत्र में प्रवेश करने और हर तरफ से हमला करने की होती थी। असम क्षेत्र में नदीयों का जाल बड़ी मात्रा में पाए जाने के कारण अहोम नौसेना भी मजबूत थी। सेना के पास छोटी नावों के सहारे पुल बनाने जैसे काम युद्धस्थिति में करने का हुनर था। देश के प्रति अहोम नागरिकों की वफादारी एवं एकजुटता के साथ धनी वर्ग के युद्ध के दौरान समय-समय पर मदद; कुशल सेनापतियों, नायकों और राजाओं की एकता के कारण, अहोम राज्य 17 बार मुग़ल आक्रमणों को खदेड़ने एवं अपनी अजेयता बनाए रखने में सफल रहा।
ऐसे गौरवशाली और संप्रभु राज्य में जन्मे लचित की प्रारंभिक शिक्षा तामुली मोमाई के संरक्षण में जारी रही। कला शाखा में उच्च शिक्षा के साथ-साथ लचित मूर्तिकला और सैन्य प्रशिक्षण में कुशल हुए जा रहे थे। सबसे पहले राजा की छत्रधर(শলাধাৰা বৰুৱা) जो राजा के निजी सलाहकार की तरह था; वहां से शुरू होकर, लचित ने सेना प्रमुख बनने से पहले घोडों की तबेले का प्रमुख (ঘোৰ বৰুৱা), सिंहलगढ़ किले के किला रक्षक और महाराज चक्रध्वज सिंह के अंगरक्षक जैसी कई जिम्मेदारियां निभाईं। लचित की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेकिन: "पूनम के चांद की तरह चौड़े उनके तेजस्वी चेहरे की तरफ देखने की किसीकी हिम्मत नही होती थी" इस प्रकार के वर्णन पाए जाते है।
'यवन: क्षमामययु:' अर्थात, यवनोंका पूर्ण तरह से नाश करने चाहिए, ऐसा ही इतिहास बना। बख्तियार ख़िलजी के सतरह आक्रमणों एवं सरदार काला पहाड़ जो मंदिरोंको ध्वस्त कर ने हेतु कुख्यात था उन दोनों की काबर असम में ही बांधी गयी। १६३९ में, मुगल सरदार अल्लायार खान ने अहोम शासकों के बीच युद्ध के अवसर का लाभ उठाया और असम पर आक्रमण किया। पश्चिमी असम तक पहुँचने वाली मुगल सेना को अहोम सेनापति मोमोई तामुली ने रोक दिया; मुगलों ने संधि की बातचीत शुरू कर दी। शाहजहाँ की बीमारी से पंगु हुए मुगल साम्राज्य के अवसर का लाभ उठाकर अहोम राजा जयध्वज सिंह ने मुगलों को खदेड़ दिया एवं विजयी तोरण लगाया। औरंगज़ेब, जो अपने पिता को क़ैद कर बादशाह बना था, उसने अपने सेनापति मीर जुमला को एक बड़ी सेना के साथ असम भेजा, अहोम सेना के अधिकारियों को मीर जुमला ने रिश्वत देकर पश्चिमअसम में गुहाटी तक जीत सुनिश्चित की, एवं अहोम की राजधानी गडगांव तक चला आया। इस कारण अहोम राजाओं ने पहाड़ियों के पास चराईदेव में शरण ली। असम जिसका अर्थ ही असमान होता है, जो घने जंगलों, विशाल नदियों, ऊंचे पहाड़ों एवं बड़े बड़े मैदानों से बनी भूमि है; वहां १६६२ में अर्ध-विजयी मीर जुमला का जीवित रहना असंभव था। मुग़ल सेना जो मूसलाधार बारिश और मच्छरों से परिचित नही थी, उनमे मलेरिया तेज़ी से फैल गया और सेकड़ो सैनिकोंकी बलि जाने लगी। नाराज होकर मीर जुमला ने संधी का पत्र भेजा। मुग़लों के आज तक के इतिहास अनुसार यह संधी भी दमनकारी परिस्थितियों से भरा हुआ था। मुग़लों को पश्चिम असम के समर्पण, मुआवज़ा, हर साल लाखों रुपये एवं साठ हाथियों को भेजने के साथ, औरंगजेब का अहोम राजकुमारी से विवाह कर उसका नाम बदलकर रोशन आरा बेगम कर दिया गया। संधी की बात करने के बाद, मीर जुमला लौट गया, लेकिन नियति के मन में कुछ और ही था| दिल्ली पहुंचने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई।
लचित की बहन, तामुली की बेटी, का विवाह अहोम राजा से हुआ था। मीर जुमला के आक्रमण दौरान लचित कहीं और युद्ध में लगा हुआ था। जब वह लौटा, तो गडगाँव से लौट रहे मुगलों का पीछा करने और अपनी भतीजी को बचाने के उनके अथक प्रयास विफल रहे। सब पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। लचित के साथ, पूरे अहोम साम्राज्य के दिल बदले की आग से जूझ उठे। अहोम सेना की तैयारी मुख्यमंत्री अतन बडगोहाई द्वारा महाराजा को दी गई सलाह के साथ शुरू हुई। प्रथमत: विचार से सेना की तैयारी करवाई। पड़ोसी खासी, जयंतीया, कछारी राजाओं से मुगलों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ने के लिए मदद मांगने के लिए अनुरोध पत्र भेजे और उन्होंने मदद प्रदान भी की। किन्तु नियति का खेल किसने जाना है? महाराज जयध्वज सिंह की अधिक थकान के कारण मृत्यु हो गई। अंतिम दिनों में उन्होंने अपने पुत्र चक्रध्वज सिंह से मातृभूमि की मर्यादा का रक्षण करने का वचन लेकर प्राण त्याग दिए|
जब युद्ध की तैयारी हो रही थी, एक दूत महल में आया। औरंगजेब की चालाक मनशा इस संदेश में स्पष्ट थी, दूत उसके साथ भेजे गए कुछ ऊंचे वस्त्र मुगल सम्राट के अधीन होने के प्रतीक रूप में पहने जाने चाहिए ऐसा वह संदेश था। सन्देश सुनकर क्रोध से लाल हुए राजा चक्रध्वज सिंह ने कहा, " इंद्रदेव के वंशज को (अहोम राजा) तुम्हारे म्लेंच्छ राजा की शरण में आने के लिये कहने की हिम्मत करने वाले तुम्हे केवल दूत होने कारण मृत्युदंड से छूट दे रहे है। जाओ जाकर अपने राजा से कहो, की रणभुमि में अपना कौशल दिखाए।" और इस तरह युद्ध की चिंगारी पड़ी......
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